कलम को ज़िंदा रखना बहुत ज़रूरी है।
सोलन 09 अक्तूबर,
हिम नयन न्यूज / साभार मनमोहन सिंह
लोकतंत्र में तो चुनाव आते रहते हैं जाते रहते हैं। कभी एक पार्टी जीत हासिल करती है कभी दूसरी। नेताओं के अपने दावे होते हैं। चुनावी नतीजों के आने तक सभी दल अपनी अपनी जीत को पक्का बताते हैं। ऐसे दावे करना उनकी ज़रूरत, उनका अधिकार और उनका फर्ज़ भी है।
गलियों, मुहल्लों, चाय की दुकानों पर भी लोग अटकलें लगाते रहते हैं। विभिन्न पार्टियों के कार्यकर्ता और उनसे सहानुभूति रखने वाले आपस में बहस करते आम देखे जा सकते हैं। लेकिन चौथे स्तंभ को तो बहुत ही जिम्मेदारी से काम लेना होता है। उसका हाथ मतदाता की नब्ज़ पर होना लाज़िम है।
छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के बाद हरियाणा और जम्मू- कश्मीर में जिस तरह पत्रकारों की फजियत हुई है वह चिंता का विषय है। जिस तरह से हारी हुई पार्टी को आत्ममंथन की ज़रूरत होती है उसी तरह से आज देश के मीडिया को भी आत्ममंथन की ज़रूरत है। लोग पत्रकारिता का मज़ाक उड़ा रहे हैं। हम सभी पर लतीफे गढ़े जा रहे हैं।
“मैं यह कतई नहीं कह रहा कि कोई भी विश्लेषण शतप्रतिशत सही होना चाहिए। उसमें थोड़ी बहुत कमी रह जाती है। लेकिन पत्रकारों के अनुमानों के पूरी तरह विपरीत नतीजे तो हम सभी पत्रकारों के अस्तित्व पर सवाल खड़े कर रहे हैं।”
मैने अपने पत्रकारिता के बहुत लंबे जीवन में बहुत से चुनाव कवर किए हैं। इस आधार पर मैं दावे से कह सकता हूं कि जनता की नब्ज़ टटोलना कोई बड़ी बात नहीं। ऐसा नहीं है की उन दिनों में कोई गलती होती नहीं थी, लेकिन सभी पत्रकार गलती नहीं करते थे। कोई इक्का दुक्का साथी या अखबार करता था। और इस तरह की गलती की कोई माफी नहीं होती थी।
अक्सर लोगों की नौकरी चली जाती थी। अखबार की इज्ज़त का बहुत ध्यान रखा जाता था। हालांकि 90 के दशक से इसमें कुछ गिरावट आनी ज़रूर शुरू हुई थी पर मामला इस हद तक नहीं था। उन दिन वे पत्रकार जिनका अनुमान गलत निकलता था अक्सर यह बहाना बनाते थे कि रातो रात लोग बदल गए।
खैर उन बातों का अब कोई औचित्य नहीं। सवाल यह है कि अब क्या किया जाए। छत्तीसगढ़ में, मध्यप्रदेश में और अब हरियाणा में सभी के अनुमान धरे रह गए। बहुत पहले कभी एसिस्ट पोल करने वाले साहब तो यहां तक कह रहे थे कि हरियाणा में कांग्रेस की आंधी है, बस देखना इतना है कि यह हवा है, तूफान है या सुनामी है। उधर जम्मू कश्मीर में त्रिशंकु विधानसभा की भविष्यवाणी थी।
आज हम सभी पत्रकारों को अपनी साख बचाने के लिए सोचना होगा। पुराने पत्रकारों की बजाए युवा पीढ़ी के कलमकारों को इस पर मनन करने की ज़रूरत है। यह सही है कि आज पत्रकारिता बहुत कठिन हो गई है। सत्ता के गलियारे सभी को अपनी ओर आसानी से खींच लेते हैं।
नौकरियां भी पक्की नहीं रही हैं। मालिकों का सीधा हस्तक्षेप अखबारों और न्यूज़ चैनलस में हो गया है। मालिकों को राजसभा लुभाने लगी है।संपादक का पद महज औपचारिक रह गया है। इन हालात में पत्रकारों का काम बहुत कठिन हो गया है। पर कलम को ज़िंदा रखना बहुत ज़रूरी है।
आज सवाल पत्रकारिता की साख का है।